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हिजड़ों का डॉक्टर, जिसने लड़ी मानवता की लड़ाई---

हिजड़ों का डॉक्टर, जिसने लड़ी मानवता की लड़ाई---
dr.s.e.huda

एक परवाज़ दिखाई दी है ---------

एक परवाज़ दिखाई दी है
तेरी आवाज़ सुनाई दी है,
जिस की आँखों में कटी थी सदियाँ
उस ने सदियों की जुदाई दी है,
सिर्फ़ एक सफ़ाह पलट कर उस ने
बीती बातों की सफ़ाई दी है,
फिर वहीं लौट के जाना होगा
यार ने कैसी रिहाई दी है,
आग ने क्या क्या जलाया है शव पर
कितनी ख़ुश-रंग दिखाई दी है!


Monday 5 April 2010

न्याज़ वर्सस प्रशाद


इसी वृहस्पतिवार ही की बात है। सुबह यही कोई ग्यारह बजे होंगे। बहुत ध्यान से और संभल-संभलकर मरीज़ देख रहा था। कि इतने में मेरे एक मरीज़ जो काफी लम्बे अरसे से मुझसे इलाज कराते-कराते मेरे अच्छे दोस्त भी हो गये हैं। उनका ओपीडी में प्रवेश हुआ। हाल-चाल पूछने के बाद मैं पास बैठे मरीज़ से कुछ सवाल पूँछता कि मेरे दोस्त अशरफ खाँ साहब ने मेरी ओर मुख़ातिब होकर कहा डॉक्टर साहब आज जल्दी में हूँ....बस दो मिनट लूँगा। मैंने कहा जी ज़रूर। अशरफ भाई..... बताइये क्या बात है। इतना कहकर अशरफ भाई ने एक पैकेट मेरी ओर बड़ी अक़ीदत से दोनों हाथ से पेश करते हुए कहा.. कि पिछली जुमेरात को मैं ख्वाजा ग़रीब नवाज़ की दरगाह पर हाज़िरी के लिये गया था। यह वहाँ का तवर्रूक है। मैंने बड़े ऐहतिराम के साथ तवर्रूक हाथ में लिया और मेज़ पररख लिया। अशरफ भाई काफी जल्दी में लग रहे थे। फौरन उठे और इजाज़त लेते हुए विदा हो गये। मैं फिर मरीज़ देखने में मशग़ूल हो चुका था। चूँकि दिन गुरूवार का था। शहर के बाज़ार की छुट्टी का दिन था। इसलिये मरीज़ों में ज्यादा तादाद शहर के व्यापारियों की थी। मैं ध्यान लगाकर मरीज़ों को देखे जा रहा था कि यही कोई बीस मिनट के बाद मेरे एक व्यापारी मित्र सुमित अग्रवाल जी का मेरे चैम्बर में आना हुआ। बड़ी गर्मजोशी के साथ हाथ मिलाया और मैंने उनसे तशरीफ रखने के लिये कहा। मैं पास की कुर्सी पर बैठे मरीज़ की ओर मुख़ातिब हो ही रहा था कि सुमित जी बीच में ही बोल पड़े। डॉक्टर साहब थोड़ी जल्दी में हूँ क्योंकि आज दुकान की भी छुट्टी है....कई काम निपटाने हैं। पिछले वृहस्पति को शिरडी गया था। साईं बाबा के दर्शन को। आप के लिये प्रशाद लेकर आया हूँ। और बड़े ख़ुलूस के साथ उन्होंने एक प्लास्टिक का पैकेट मेरी ओर बढ़ा दिया। और मैंने खड़े होकर उस पैकेट को स्वीकार किया। सुमित जी को ससम्मान विदा किया और मरीज़ देखने में मसरूफ हो गया। मरीज़ों के आने-जाने का सिलसिला चलता रहा और वक्त दोपहर से शाम की तरफ धीरे-धीरे बढ़ने लगा। शाम के पाँच बज चुके थे। लगभग काफी काम निपटा चुका था। और अब मैं थोड़ा थक भी रहा था। मैंने अपने असिस्टेंट संजीव को चाय के लिये आवाज़ दी। और मेज़ पर दोनों हाथ टिकाकर बैठ गया। अचानक मेरी नज़र सामने रखे दोनों पैकेट्स पर पड़ी। जो मेरे अज़ीज़ दोस्तों ने मुझे बड़ी मोहब्बत से मुझे पेश किये थे। मगर यह बात सुबह ग्यारह-बारह बजे के बीच की थी और अब शाम के पाँच बज चले थे। इतने लम्बे अरसे में व्यस्तता की वजह से मैं समझ नहीं पा रहा था कि कौन-सा पैकेट अशरफ भाई का है और कौन-सा सुमित जी का। क्योंकि इत्तिफाक से दोनों पैकेट बराबर के आकार के थे और उसमें रखी बर्फी, इलायची दाने, गुलाब के फूल की पत्तियाँ, रेवड़ी भी एक जैसी दिख रही थीं। अब मेरे लिये बड़ी मुश्किल घड़ी आन पड़ी थी। क्योंकि ख्वाजा ग़रीब नवाज़ और साईं बाबा - दोनों के दर्शन का विशेष दिन जुमेरात ही होता है। और प्रशाद और न्याज़ भी एक जैसी। मेरे लिये बड़ा विचित्र एवं पहला अनुभव था। समझ नहीं पा रहा था कि क्या करूँ। इतने में संजीव चाय लेकर आ गया। मैंने चाय के प्याले को बड़ी मज़बूती से पकड़ लिया। और बहुत दिमाग़ लगाने की कोशिश की कि कौन-सा प्रशाद किसका है। हर एंगिल से सोचा कि अशरफ भाई से लेकर कहाँ रखा था.....और सुमित जी से लेकर किधर रखा था। कौन-सा पैकेट किसका है। सुमित किधर बैठे थे। अशरफ ने किधर से दिया था। मगर सब कोशिशें बेकार। धीरे-धीरे मेरा डर बढ़ने लगा कि अब क्या होगा। साईं नाथ और ख्वाजा बाबा - दोनों एक साथ। बराबर-बराबर एक टेबिल पर। कुछ अजीब-सा घटने की घबराहट से मेरी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। हाथ भी पसीने से कुछ गीले हो चले थे। मैंने सोचा कि अगर ख्वाजा बाबा का तवर्रूक साईं जी को याद करके चख लिया और साईं नाथ का प्रशाद ख्वाजा बाबा को याद करके चख लिया तो क्या होगा। मेरी साँसे ज़ोर-ज़ोर से चलने लगीं और अपने आपको कोसने लगा। काश.......दोनों को अलग-अलग रख दिया होता। काश......दोनों पैकेट पर दोस्तों के नाम की स्लिप होती...वगैरह....वगैरह। मैंने ख़ुदा को याद किया और दुआ माँगी कि इस मुश्किल घड़ी में मेरी मदद कर। अचानक मेरे मन में विचार कौंधा और मैंने दोंनो पैकेट्स का मुँह खोलकर एक-दूसरे के सामने रख दिया और सोचने लगा कि शायद अब कोई करिश्मा होगा। ध्यान लगाकर देखने लगा। दो-तीन मिनट बाद मेरी निराशा बढ़ने लगी। कोई समाधान नज़र नहीं आ रहा था। न्याज़ और प्रशाद का कोई द्वन्द मुझे नहीं दिख रहा था। दोंनो पैकेट्स ख़ामोश मेज़ पर रखे थे। और न ही अपने को सर्वोच्च दिखाने की क़वायद पैकेट्स में नज़र आ रही थी। छः बज चुके थे। शाम की ओपीडी का समय समाप्त। पर मैं बड़ा बेचैन, और दिमाग़ी परेशानी में उलझ चुका था। इसी बीच मेरे इंटरकॉम टेलीफोन की घन्टी घनघनाई। घन्टी ने मेरी बेचैनी को तोड़ा। फोन उठाने पर पता चला कि जनरल वार्ड में बेड नम्बर ग्यारह पर मुझे एक मरीज़ ने बहुत ज़रूरी याद किया है। मैं दौड़ता हुआ जनरल वार्ड पहुँचा। पर मेरा दिमाग़ मेरे चैम्बर में रखे न्याज़ और प्रशाद के द्वन्द पर था। जो मेरी बेचैनी बढ़ाए जा रहा था। मरीज़ को कुछ ज्यादा परेशानी थी। लगभग दस मिनट का समय उसके पास लग गया। पर मेरा ज़ेहन तो कहीं और ही था। सिस्टर को ज़रूरी निर्देश दिये और तक़रीबन दस मिनट के बाद बड़ी बेचैनी से लगभग दौड़ता हुआ अपने चैम्बर की ओर आया। अन्य ख्याल दिमाग़ में सवाल कर रहे थे। जैसे ही मेज़ पर नज़र पड़ी..... अवाक रह गया..... मुँह और आँखें खुली रह गयीं। मैंने देखा मेज़ पर रखे दोनों पैकेट्स में से चीटियों का एक बड़ा समूह एक-दूसरे पैकेट में निःसंकोच आ जा रहा है। सहसा विश्वास ही नहीं हुआ। अपने चेहरे को पैकेट्स के करीब लाकर और क़रीब से देखा। अचानक ऐसा अहसास हुआ कि एक पैकेट्स से दूसरे पैकेट्स में आने-जाने वाली चीटियाँ मेरा मुँह चिड़ा रही हैं। उन चीटियों के मुँह चिढ़ाने से मुझे शर्म महसूस हो रही थी। परन्तु अब मेरा दिमाग़ी कौतूहल शान्त था और चेहरे पर मुस्कुराहट भी।

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